Posted On: 05-09-2018

सूरदासजी के दोहे - Surdash Jee ke Dohe

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सूरदासजी के दोहे - Surdash Jee ke Dohe

दोहा :- “मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृन्दावन की रेनु | नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु || मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन | चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु || इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनी के ऐनु | सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पब्रूच्छ सुरधेनु ||”

अर्थ :- राज सारंग पर आधारित इस पद में सूरदास कहते है की ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं | उसी भूमी पर श्यामसुंदर का स्मरण करने से मन को परम शांति मिलती हैं | सूरदास मन को प्रभोधित करते हुए कहते हैं की अरे मन ! तू कहे इधर उधर भटकता हैं | ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से परे रहकर सुख की प्राप्ति होती हैं | यहां न किसी से लेना, न किसी को देना | सब ध्यानमग्न हो रहे हैं | ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बरतनों से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्ममत्व की प्राप्ति होती हैं | सूरदास कहते हैं की ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती | इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमी का महत्व प्रतिपादित किया हैं |

दोहा :- “बुझत स्याम कौन तू गोरी | कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी || काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी | सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी || तुम्हरो कहा चोरी हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी | सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भूरइ राधिका भोरी ||”

अर्थ :- सूरसागर से उध्दुत यह पद राग तोड़ी में बध्द है | राधा के प्रथम मिलन का इस पद में वर्णन किया है सूरदास जी ने | श्रीकृष्ण ने पूछा की हे गोरी ! तुम कौन हो ? कहां रहति हो ? किसकी पुत्री हो ? हमने पहले कभी ब्रज की इन गलियों में तुम्हेँ नहिं देखा | तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई ? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहतीं |इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी की नंदजी का लड़का माखन चोरी करता फिरता हैं | तब कृष्ण बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे | अच्छा, हम मिलजुलकर खेलते हैं | सूरदास कहते हैं की इस प्रकार रसिक कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया |

दोहा :- “जसोदा हरि पालनै झुलावै | हलरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोई कछु गावै || मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै | तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै || कबहुं पलक हरि मुंदी लेत हैं कबहुं अधर फरकावै | सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै | इहि अंतर अकुलाइ उठे हरी जसुमति मधुरै गावै | जो सुख सुर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनी पावै ||”

अर्थ :- राग घनाक्षरी में बध्द इस पद में सूरदास जी ने भगवान् बालकृष्ण की  शयनावस्था का सुंदर चित्रण किया हैं | वह कहते हैं की मैया यशोदा श्रीकृष्ण को पालने में झुला रही है | कभी तो वह पालने को हल्कासा हिला देती हैं, कभी कन्हैया को प्यार करने लगती हैं और कभी चूमने लगती हैं | ऐसा करते हुए वह जो मन में आटा हैं वही गुनगुनाने भी लगती हैं | लेकिन कन्हैया को तब भी नींद नहीं आती हैं | इसीलिए यशोदा नींद को उलाहना देती हैं की आरी निंदिया तू आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नहीं ? तू शीघ्रता से क्यों नहीं आती ? देख, तुझे कान्हा बुलाता हैं | जब यशोदा निंदिया को उलाहना देती हैं तब श्रीकृष्ण कभी पलकें मूंद लेते हैं और कभी होठों को फडकाते हैं | जब कन्हैया ने नयन मूंदे तब यशोदा ने समझा की अब तो कान्हा सो ही गया हैं | तभी कुछ गोपियां वहां आई | गोपियों को देखकर यशोदा उन्हें संकेत से शांत रहने को कहती हैं | इसी अंतराल में श्रीकृष्ण पुन: कुनमुनाकर जाग गए | तब उन्हें सुलाने के उद्देश से पुन: मधुर मधर लोरियां गाने लगीं | अंत में सूरदास नंद पत्नी यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते है की सचमुच ही यशोदा बडभागिनी हैं क्योकी ऐसा सुख तो देवताओं व ऋषि-मुनियों को भी दुर्लभ है |

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दोहा :-“हरष आनंद बढ़ावत हरि अपनैं आंगन कछु गावत | तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत || बांह उठाई कारी धौरी गैयनि टेरी बुलावत | कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर आवत || माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत | कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत || दूरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत | सुर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत ||”

अर्थ :- राग रामकली में आबध्द इस पद में सूरदासजी जी ने भगवान् कृष्ण की बालसुलभ चेष्टा का वर्णन किया हैं | श्रीकृष्ण अपनेही घर के आंगन में जो मन में आटा हैं वो गाते हैं | वह छोटे छोटे पैरो से थिरकते हैं तथा मन ही मन स्वयं को रिझाते भी हैं | कभी वह भुजाओं को उठाकर कली श्वेत गायों को बुलाते है, तो कभी नंद बाबा को पुकारते हैं और घर में आ जाते हैं | अपने हाथों में थोडासा माखन लेकर कभी अपने ही शरीर पर लगाने लगते हैं, तो कभी खंभे में अपना प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाने लगते हैं | श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं को माता यशोदा छुप-छुपकर देखती हैं और मन ही मन में प्रसन्न होती हैं |सूरदासजी कहते हैं की इस प्रकार यशोदा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर नित्य हर्षाती हैं |

दोहा :- “जो तुम सुनहु जसोदा गोरी | नंदनंदन मेरे मंदीर में आजू करन गए चोरी || हों भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी | रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी || मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी | जब गहि बांह कुलाहल किनी तब गहि चरन निहोरी || लागे लें नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी | सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी ||”

अर्थ :- सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित हैं | भगवान् की बाल लीला का रोचक वर्णन हैं | एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आयी | वो बोली की हे नंदभामिनी यशोदा ! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए | पीछे से मैं भी अपने भवन के निकट ही छुपकर खड़ी हो गई | मैंने अपने शरीर को सिकोड़ लिया और भोलेपन से उन्हें देखति रही | जब मैंने देखा की माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई हैं तो मुझे बहोत पछतावा हुआ | जब मैंने आगे बढ़कर कन्हैया की बांह पकड़ ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकड़कर मेरी मनुहार करने लगे |इतना ही नहीं उनके नयनोँ में अश्रु भी भर आए |ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड़ दिया | सूरदास कहते हैं की इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया |

दोहा :- “अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया | नंद महर सों बाबा अरु हलधर सों भैया || ऊंचा चढी चढी कहती जशोदा लै लै नाम कन्हैया | दुरी खेलन जनि जाहू लाला रे ! मारैगी काहू की गैया || गोपी ग्वाल करत कौतुहल घर घर बजति बधैया | सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया ||”

अर्थ :- सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबध्द हैं | भगवान् बालकृष्ण मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं | सूरदास कहते हैं की अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया मैया नंदबाबा को बाबा – बाबा व बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं | इना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो यशोदा ऊंची होकर अर्थात कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक उचककर कन्हैया को नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं की लल्ला गाय तुझे मारेंगी | सूरदास कहते हैं की गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता हैं | श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी अनोखी हैं | इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयाँ दे रहे हैं | सूरदासजी कहते हैं की हे प्रभु ! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ |

दोहा :- “कबहुं बोलत तात खीझत जात माखन खात | अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात || कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धुरि धूसर गात | कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात | कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात | सुर हरी की निरखि सोभा निमिष तजत न मात ||”

अर्थ :- यह पद रामकली में बध्द हैं | एक बार कृष्ण माखन खाते खाते रूठ गए और रूठे भी ऐसे की रोते रोते नेत्र लाल हो गये | भौंहें वक्र हो गई और बार बार जंभाई लेने लगे | कभी वह घुटनों के बळ चलते थे जिससे उनके पैरों में पड़ी पैंजनिया में से रुनझुन स्वर निकालते थे | घुटनों के बल चलकर ही उन्होंने सारे शरीर को धुल – धूसरित कर लिया | कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और नैनों में आंसू भर लाते | कभी तोतली बोली बोलते तो कभी तात ही बोलते | सूरदास कहते हैं की श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक एक पाल भी छोड़ने को न हुई अर्थात् श्रीकृष्ण की इन छोटी छोटी लीलाओं में उन्हें अद्भुत रस आने लगा |

दोहा :- “मैं नहीं माखन खायो मैया | मैं नहीं माखन खायो | ख्याल परै ये सखा सबै मिली मेरैं मुख लपटायो || देखि तुही छींके पर भजन ऊँचे धरी लटकायो | हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो || मुख दधि पोंछी बुध्दि एक किन्हीं दोना पीठी दुरायो | डारी सांटी मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो || बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो | सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो ||”

अर्थ :- “सूरदास का अत्यंत प्रचलित पद राग रामकली में बध्द हैं | श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में माखन चोरी की लीला सुप्रसिध्द है | वैसे तो कान्हा ग्वालिनों के घरो में जाकर माखन चुराकर खाया करते थे | लेकिन आज उन्होंने अपने ही घर में माखन चोरी की और यशोदा मैया ने उन्हें देख लिया | सूरदासजी ने श्रीकृष्ण के वाक्चातुर्य का जिस प्रकार वर्णन किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता | यशोदा मैया ने देखा की कान्हा ने माखन खाया हैं तो उन्होंने कान्हा से पूछा की क्योरे कान्हा ! तूने माखन खाया है क्या ? तब बालकृष्ण ने अपना पक्ष किस तरह मैया के सामने प्रस्तुत करते हैं, यही इस दोहे की विशेषता हैं | कन्हैया बोले ………मैया ! मैंने माखन नहीं खाया हैं | मुझे तो ऐसा लगता हैं की ग्वाल – बालों ने ही बलात मेरे मुख पर माखन लगा दिया है | फिर बोले की मैया तू ही सोच, तूने यह छींका किना ऊंचा लटका रखा हैं मेरे हाथ भी नहीं पहुच सकते हैं | कन्हैया ने मुख से लिपटा माखन पोंछा और एक दोना जिसमें माखन बचा था उसे छिपा लिया | कन्हैया की इस चतुराई को देखकर यशोदा मन ही मन में मुस्कुराने लगी और कन्हैया को गले से लगा लिया | सूरदासजी कहते हैं यशोदा मैया को जिस सुख की प्राप्ति हुई वह सुख शिव व ब्रम्हा को भी दुर्लभ हैं | भगवान् श्रीकृष्ण की बाल लिलाओं के माध्यम से यह सिध्द किया हैं की भक्ति का प्रभाव कितना महत्वपूर्ण हैं |